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Friday 25 August 2017

                                   १३९,लेख 

बहुत मुश्किल है किसी के दर्द को समझना । वो बच्चे जो बचपन में ही अनाथ हो जाते हैं समय से पहले ही बड़े और समझदार भी हो जाते हैं । क्या कोई उनकी मनोदशा को समझ सकता है ? बचपन मे प्यार का अभाव मानो उनकी पूरी जिंदगी को ही बदल कर रख देता है ।माँ बाप की कमी को दुनिया की कोई भी शै कभी पूरा नहीं कर सकती ।ऐसे बच्चे हर समय प्यार पाने को लालायित रहते हैं । सामने वाले हर शख्स का झूठा प्यार भी मानो उन्हें अमृत लगता है ।ये दुनिया जो हमेशा से सिर्फ अपना मतलब पूरा करके अलग हो जाती है ,इस प्यार की कमी का अहसास कैसे कर सकती है ?माँ बाप के न होने से अनगिनत माँ पिता तैयार हो जाते हैं लेकिन सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए । कोई उनकी भावनाओं का मोल नही समझ पाता । ऐसे बच्चे हमेशा प्यार की कमी का दंश उम्र भर झेलते हैं ।कहीं कहीं देखा भी गया है कि यदि कोई उन्हें गोद ले लेता है या कुछ मदद करता है तो उसका बदला जरूर चाहता है ।वो बच्चा कभी खुलकर सांस भी नहीं ले पाता ।एक गुलामी का डर ताउम्र साथ रहता है । क्या अनाथ बच्चों की मदद करने से कोई गरीब भी हो सकता है ?अरे लोग तो कितना दान करते हैं फिर भी घाटा नहीं होता ,फिर किसी की मदद करने से किसी के यहां कमी कैसे आ सकती है ?प्यार सभी की एक जन्मजात जरूरत है ,यदि हम किसी की पैसों से मदद न कर पाएं तो अन्य और भी तरीके हैं । ऐसे बच्चों को समझना आसान काम नहीं ।ये जिसके साथ भी दोस्ती और प्यार का रिश्ता बनाते हैं आजीवन निभाने की कोशिश करते हैं फिर भी एक कमी जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती ,और शायद आंसूं ही इनकी तकदीर बन जाते हैं ।
कैसे समझ पायेगा कोई दर्द को ,
लकीरों से कब जख्म भर पाते हैं ।
अश्क़ देने वालों में शामिल है नाम उनका भी ,
दे जाते हैं जिल्लत जो माँ बाप का फर्ज भूलकर ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
 १३८,

                                 १३७/कविता 

हर हर महादेव ,मित्रो आपका दिन शुभ हो ।
मेरी कविता मुंबई की मासिक पत्रिका जयविजय के अगस्त अंक में

                                          १३६ ,शेर 

दस्तक प्यार की नींद उड़ा जाती है ,
इश्क़ ख्वाब है या जन्नत की बातें ।

Friday 18 August 2017

१३५,मेरा लेख

http://www.badaunexpress.com/badaun-plus/a-4364/

जब तक इंसान बाहरी मोह में फंसा हुआ है ,आंतरिक खुशी को महसूस ही नहीं कर सकता । विषय वासना इंसान को उम्र भर स्वयं से अपरिचित ही रहने देती हैं ।स्वयं को पहचानने के लिए भोगों से मुक्त होना जरूरी है । इंसानी स्वभाव है कि वो जो कुछ भी करता है ,उसके बदले की आशा जरूर रखता है । दुनियादारी और मोह उसे खुद से दूर करते चले जाते हैं और यहीं से एक नई बीमारी जन्म लेती है अवसाद की । अवसाद यानि डिप्रेशन -hypertenstion ,high Bp । जब अपनी सारी तमन्नाओं को दबाकर हम दूसरों की इच्छाओं की तृप्ति में लग जाते हैं वहीं हमारे अंदर नकारात्मक विचार पैदा होने लगते हैं । इस संसार का एक नियम है जब तक आपकी जरूरत है सामने वाला हर व्यक्ति आपकी इज्जत करता है लेकिन जब वही जरूरत खत्म हो जाती है उस व्यक्ति को आपके अंदर कमियां ही कमियां नजर आने लगती हैं ।आप ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं लेकिन स्वयं को भुलाकर खुद को असहनीय कष्ट भी देते हैं ।जरा सोचिए क्या आपके किये हुए अच्छे कार्य किसी को समझ आते हैं ? क्या हम खुद को भूलकर दूसरों को खुशी दे सकते हैं ।देखने मे तो ये बातें स्वार्थपूर्ण लगती हैं लेकिन यह भी उतना ही सत्य है जितना जिंदगी और मौत । तो क्यों न हम खुद की खुशियों को भी नजरअंदाज न करें ।कुछ समय खुद के लिए भी निकालें ।प्रतिदिन योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं जिससे हम स्वयं को भी पहचान पाएं ।जब हम खुश होंगे तभी औरों को भी खुश रख सकते हैं वरना ताउम्र बीमारी और दवाओं का बोझ लेकर घूमते रहना ही हमारी मजबूरी बन जाएगी।
एक स्वस्थ व्यक्ति ही देश और समाज की उन्नति में सहायक बन सकता है ।
एक अंतिम और कड़वा सत्य तो यही है ,जो स्वयं खुश है वही दूसरों को भी खुशियां दे सकता है ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

Tuesday 15 August 2017

१३४,स्वतंत्रतता दिवस

15 अगस्त भारत के 71वे स्वतंत्रता दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं ।

जय भारत जय हिंद
हिंदी ,हिन्दू ,हिन्दुतान ,
भारत की सही पहचान ।
सर्वधर्म समानता ,
विश्व में इसकी शान ।

१३३.कृष्णा जन्माष्टमी

जय श्री कृष्णा ,आप सभी को मेरे कान्हा के जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई । दिल से लिखी एक कविता मेरे प्यार मेरे कृष्णा को समर्पित करती हूं  ।आभार सौरभ दर्शन साप्ताहिक पत्र भीलवाड़ा (राजस्थान) 12/8/17 .

प्यार हो तुम
दिल का अहसास हो तुम
संजोया था कभी ख्वाब में
उसी ख्वाब का राज हो तुम
भूल जाती हूँ जिंदगी को भी
उस जिंदगी का साज हो तुम
बाबरी हो गयी बनकर मीरा
ओ मेरे प्राण मेरे कृष्णा हो तुम।
बांसुरी की धुन पर दौड़ आयी थी कभी
वही राधा के कृष्णा हो तुम।
चाहती हूं बन जाऊं तेरे होठों की बंशी
ओ गोपाला मेरे कान्हा हो तुम।
लगन मेरी बुझा देना ओ सांवरे,
मेरे दिल के छैला हो तुम।
जला दी प्रेम की बाती
मेरे सूने से आंगन में ।
राधा के श्याम
रुक्मणी के भरतार हो तुम।
प्यार में तेरे बनकर बाबरी
सुध बुध अपनी भुला बैठी।
ओ कृष्णा मुझे कभी न भुला देना।
मेरी नैया मेरे जीवन की पतवार हो तुम।
सब कुछ कह दिया ओ गिरधारी ,
मेरी सूनी जिंदगी के रिश्तेदार हो तुम।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

Sunday 13 August 2017

                             १३२ शेर 

इश्क बदनाम है नाम से ,
काफ़िर जिंदगी क्यूँ बदनाम नहीं !
दस्तक दिल पर देकर इश्क को
बदनाम करने का हुनर कहाँ से सीखा इसने !



खुशबू प्यार की दिल को महका जाती है ,
क्यूँ दुनिया को नफ़रत है प्यार के नाम से !

                           १३१,हमारा भारत महान 

जय श्री कृष्णा मित्रो आपका दिन शुभ हो ।15 aug के उपलक्ष्य में मेरी रचना कल12/8/17 के दैनिक करंट क्राइम (नई दिल्ली ) में ! आभार 
जय हिंद जय भारत

                              १३० ,फेसबुक 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,शुभ संध्या !!
फेसबुक एक ऐसा माध्यम है जहाँ हम अनगिनत अनजान लोगों के संपर्क में आते हैं ! जब कभी जिंदगी बोझ लगने लगती है ,यहाँ आकर लगता है जैसे दुनिया में बहुत कुछ है ! अपना सुख दुःख सभी एक दूसरे से शेयर करने लगते हैं ! ऐसा महसूस होता है ये एक बहुत बड़ा परिवार है ! जिन बातों को हम हमेशा गलत मानते हैं ,समझते हैं फिर भी जानकर उन्हीं रास्तों पर चलने लगते हैं ! किसी से भी अत्यधिक निकटता सिर्फ दुःख का ही कारण बनती है ! अपने लक्ष्य को भूलकर अनजाने रास्तों पर चलना जीवन को गतिहीनता ही देना है ! तो आइये कुछ ऐसा करें जिससे हम दूसरों के साथ खुद को भी सच्ची ख़ुशी दे सकें ! क्या औरों को दुःख देकर हम खुश रह सकते हैं ??/???

                                 १२९,बाल विवाह 

मेरी रचना सौरभ दर्शन साप्ताहिक पत्र राजस्थान (भीलवाड़ा )में प्रकाशित हुई ,आभार संपादक मंडल ।

                                       १२८,अल्पना 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,शुभ संध्या ।
मेरी रचना दैनिक सांध्य ज्योति (भरतपुर )में आपकी समीक्षा के लिए ,

                                        १२७ लेख 

क्यों हम किसी व्यक्ति पर इतना निर्भर हो जाते हैं कि उसके बिना कुछ भी अच्छा नही लगता ?जिंदगी अचानक रुकी हुई लगने लगती है ।संसार मे हर व्यक्ति अपनी हजारों समस्याओं से घिरा हुआ है ,जरूरी तो नही कि जब आप चाहे सामने वाला व्यक्ति आपके लिए हाजिर हो ।मानव स्वभाव हर व्यक्ति को अपना जैसा समझने पर मजबूर है । घर ,परिवार ,समाज सभी की कुछ न कुछ चाहत होती हैं।क्या एक व्यक्ति एक समय मे सभी की इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है ?इंसान इंसान है ,भगवान तो नहीं ।फिर किसी व्यक्ति से इतनी अपेक्षाएं क्यों ??????