Followers

Thursday 26 April 2018

                          ७१,जिंदगी का सफ़र 


                      ७०,आसिफा या राजनीति 

 मेरी रचना वर्तमान अंकुर नोएडा में ।23/4/18




                      ६९,एक शाम नीरज जी के साथ 







ॐ नमः शिवाय(22/4/18)
"आगमन " द्वारा प्रकाशित गीत ऋषि पद्मभूषण परम श्रदेय डॉ गोपाल दास 'नीरज' जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पुस्तक "नीरज ...एक जीवित किंवदंती"के लोकार्पण दिवस पर एक यादगार शाम गीतों के महान लेखक नीरज जी के साथ उनके निवास स्थान पर । एक यादगार कवि गोष्ठी आगमन समूह और सदी के महान लेखक आदरणीय नीरज जी के साथ। उनके सानिध्य में अपनी कविता सुनाने का अविस्मरणीय पल ।उनका आशीर्वाद और सराहना पाकर दिल बाग बाग हो गया । आदरणीय पवन जैन सर ,डॉ अशोक मधुप जी , कवयित्री कीर्ति काले जी ,डॉ स्वीट एंजेल , प्रिया सिन्हा ,डॉ कविता गुप्ता , मनीषा जोशी ,विनोद कुमार वर्मा ,मनोज कामदेव डॉ दिनेश कुमार शर्मा व अन्य कवियों के साथ आपकी मित्र वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़ ।

                                    ६८,जिंदगी 


                                        ६७,पहल 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,
एक छोटी सी पहल कुछ दिल की बातें दिल से ,
आज भी हमारे देश में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने का मतलब है बहुत सारी समस्याओं से दो ,चार होना ! मकान ,दूकान बच्चों की पढाई लिखाई ,शादी के लिए दहेज़ की चिंता और भी बहुत सारे तनाव ! घर के मुखिया की सारी उम्र इसी में निकल जाती है !अपने लिए वक्त ही कहाँ मिलता है ? ऐसे में यदि घर के मुखिया को कोई बड़ी बीमारी हो जाती है ,तो सारा घर 
ही तनाव में रहता है ! अमीर व्यक्ति तो अपने लिए इंतजाम कर लेता है लेकिन क्या मध्यम वर्ग के लिए भी कोई ऐसी योजनायें हैं जिनसे आसानी से बड़ी बीमारियों का खर्चा भी हो जाए और तनाव भी कम हो सके ! अगर आप में से किसी को जानकारी हो तो जरूर बताएं जिससे सभी लोग लाभ उठा सकें ! सोचने लिखने और पढने में जो बातें आसान लगती हैं, अक्सर वो बहुत बड़ी होती हैं ! धन्यवाद

Thursday 19 April 2018

                                   ६६,अभिव्यक्ति 





                             ६५ ,मैं और तुम 




                                   ६४,इबादत 
















इबादत ,अक्स यादें ........बेहिसाब ,
तन्हाई का अजीब जमाना है साहब ।
वो जुर्म करके भी आजाद हैं ,
दागदार पर /*****************
ख़्वाब लूटने का इल्जाम है साहब।

                                  ६३,कुछ यूँ ही 

छोड़ दिया सबने अकेला ,
जानते थे मज़बूत है ।
हासिल है प्यार आपका ,
सिर्फ यही मेरा वजूद है ।

हम जिसको प्यार करते हैं 
उसे रुला कैसे सकते हैं ।
दुख में सिर्फ अपनों की याद आती है या
 उनसे भी दूरी बना ली जाती है ।
बहुत असमंजस है ।


प्रेम की भावना एक जीवित व्यक्ति के जीने का संबल बनती है
 और नफरत उसे जीते जी मार देती है ।



                            ६२,राजनीति 

मेरी रचना आज की राजनीति पर ,
आसिफा-या-राजनीति-
hindi.sahityapedia.com

औरत
एक माँ भी है ,एक जननी भी ।
पत्नी भी है , एक बहन भी ।
राजनीति
जिसका न कोई लिंग है ,न धर्म ही ।
जिसका न रूप है ,न व्यक्तिव ही ।
समाज
जो बंट गया है जाति और विवाद में ,
व्यर्थ के अहम और सिर्फ उन्माद में ।
आसिफा
क्या एक लड़की होना ही गुनाह था मेरा
या धर्म को बांटकर फसाद करना लक्ष्य था
अभी तो खेलने की उम्र थी मेरी ,
क्यों हवस से भरी वहशी नजर थी तेरी ।
परी होती हैं बेटियां तुम्हारी ,
फिर क्यों मुझ पर नजर थी तेरी।
क्यों न लाज आयी तनिक भी ,
क्या माँ से बड़ी राजनीति थी तेरी ।
न छोड़ी तुमने मेरी जीने की वजह ,
इंसान नहीं राक्षस जात थी तेरी ।
हवस और दरिंदगी की मैं मिसाल हूँ,
देश की बेटी और जिंदा सवाल हूँ तेरी ।
जीत जाओगे शायद मेरी लाश पर ,
राजनीति की रोटियां सेककर ।
संभल जाओ आज भी ऐ लड़ने वालो
कल की बाजी पर बिछी है बिसात तेरी ।
रूह कांप जाती है आज ये सोचकर ,
पूजते हो जिन मंदिरों में देवी मां को ।
क्यों वही अय्यासी का अड्डा बना दिया ,
दबाकर एक चीख को राख बना दिया।

                           ६१,लेख और कवितायें


जय श्री कृष्णा ,मेरा लेख और 6 कविताएं वार्ष्णेय चेतना ,नोएडा में प्रकाशित ।  

                                           ६०,लेख 




मेरा लेख बदायूं एक्सप्रेस पर 
http://www.badaunexpress


.com/badaun-plus/s-2680/ ‎
Exif_JPEG_420
प्रेम और घृणा के बीच के भाव न जीने देते हैं न आगे बढ़ने देते हैं ।अंतर्मन के भाव जैसे कुछ कहना चाहते हुए भी सिमट जाते हैं । पीड़ा और अहसास के साये जैसे दूर दूर तक हमें अपने पास नहीं आने देते और हमारी रिक्तता हर पल खुद को बोझिल बनाती चली जाती है । हम जिसे अपना समझकर खुश होते हैं वो हमारा होता ही कब है ?कुछ छिपे हुए स्वार्थ ही तो हम सब को एक दूसरे से जोड़े रखते हैं और हम वक्त की धारा में बहते चले जाते हैं । नीरसता ,व्याकुलता ,अकेलापन जब भी छोटे से प्रकाश को देखता है तो लगता है जैसे यही वो किरण है जिसका कब से इंतजार था । भाव , उद्वेग को चीरकर जैसे कालिमा बाहर भागना चाहती है ।हर सुबह सूरज का इंतजार हम सब को जीने की राह दिखाता है लेकिन क्या हम खुले दिल से उस किरण का स्वागत कर पाते हैं ?नहीं कुछ और अच्छा पाने की चाहत में आज की खुशी को भूलकर उस अनजानी खुशी की तलाश में निकल पड़ते हैं जो न कभी किसी ने देखी न महसूस ही की ।कहाँ जा रहे हैं हम ?किसकी तलाश है ?कौन है वो।खुशी ,चलो एक बार फिर से अनजान बनकर बच्चा बन जाते हैं ,शायद वो खुशी मिल जाये ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                                        ५९,जीवन 

टूटते नहीं जो अकेले होते हैं 
अकेले हैं तो क्या हुआ जिंदगी 
बढ़ते हैं वही दुनिया के सफर में 
जिनके हौसले बुलंद होते हैं ।

Follow my writings
on 
https://www.yourquote.in/vershavarshney_22 #yourquote

                                 58,journey of life 




                                   ५७,भक्ति 

ॐ नमः शिवाय ,
इंसान से प्रीत करके दुख का भाजन बनना पड़ सकता है ,लेकिन ईश्वर का भजन करने से प्रेम की प्राप्ति ही होती है।

                                ५६,बेटियां 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,मेरी कविता बेटियां "सौरभ दर्शन" राजस्थान में 

बेटियां 
*******************
मैं हूँ कामिनी ,मैं हूँ दामिनी 
हैं चंचल कटाक्ष नेत्र भी ,
साहस की मैं हूँ स्वामिनी ।

मैं हूँ रागिनी ,मैं हूँ यामिनी
है मुझमें सरगम भरी हुई
त्याग और धैर्य की हूँ प्रतिभागिनी ।

मैं हूँ दुर्गा ,मैं हूँ काली
तेज है मुझमें समाया हुआ ,
वीरता की हूँ सौदामिनी ।

मैं हूँ माँ ,मैं हूँ अनुगामिनी
प्यार की करती हूं बरसातें
हूँ बेटी भी बड़भागिनी ।

मैं हूँ धरिणी ,मैं हूँ जननी
मारकर मुझे कैसे खुश रह पाओगे
मैं ही तो हूँ जन्मदायिनी ।

मैं हूँ मिश्री ,मैं हूँ तीखी
मत छेड़ना रौद्र रूप को ,
आ जाऊँ जिद पर तो हूँ गजगामिनी ।

मैं हूँ शील ,मैं हूँ वेद वाणी भी
सीखते हो चलना ऊँगली पकड़कर
मैं ही हूँ वो जीवन दायिनी ।

माना कि संसार तुम्हारा है ,
खून देकर लेकिन मैंने संभाला है ,
कोसते हो फिर क्यों आज भी ,
संसार है मुझसे ,मैं ही तो हूँ
ईश्वर की जीती जागती कामायनी ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                                  ५५,शेर 

अश्क़ बने जब बेजुबान गवाह।
शब्दों की जरूरत फिर कहाँ।

इन्तजार करना हमारी फितरत तो नहीं थी ,
जूनून ए इश्क ने दीवाना बना दिया |

किसी मंजिल तक पहुंचने के लिए
 किसी जिद को छोड़ना जरूरी है ।

                                     ५४,ऑनलाइन 

मेरा व्यंग्य आज के करंट टॉपिक पर ,
"ऑनलाइन "
hindi.sahityapedia.com

देखकर उनको ऑनलाइन
एक ज्वार उठता है दिल में ,
कभी थकते नही थे जो बात करते हुए ,
आज रुलाती हैं सिर्फ खामोशियाँ उनकी ।
वो अदाएं जिन पर हुआ करते थे कभी वो वारी,
आज गुस्से की वजह बन जाती है ।
ये कैसा है ऑनलाइन का किस्सा ,
सवाल उठता है मन में ।
शायरी ,शेर और ना जाने कितनी 
अनगिनत कभी खत्म न होने वाली बातें ,
लगता था जैसे कितनी हसीन दुनिया होती है ऑनलाइन की ।
वक़्त वक़्त की बात है कभी सहज लगती थी जो बातें ,
आज न जाने क्यों थका देती हैं ।
बड़ी बेरहम होती हैं ये ऑनलाइन की बेजोड़ रस्में
न रहे वो जज्बे ,न ही शक्ल उनको भाती है ,
मिलती है बस एक धमकी सब कुछ बंद करने की
बड़ी ही शराफत भरी होती हैं ये ऑनलाइन की किस्में
नजर आती है कभी परी तो कभी स्वीटी भी मिल जाती है ,
पूछते नहीं थे जिसे अपने भी ,वही रोशनी की किरण बन जाती है ।
महबूबा या सोनपरी बनकर निखर जाती है
बड़ी अदाओं से भरी होती हैं ये ऑनलाइन की किश्तें ।
दुख के मारे भी होते हैं यहाँ कितने मजनूं परेशान ,
नासाज होते हैं अपनी घरवाली से ,
बनाकर क्षद्म नाम से एकाउंट खुश नजर आते हैं ।
कितनी मोह्हबत लुटाती हैं यहां
 ये ऑनलाइन काउंसिलिंग की बेतहाशा महफिलें ।
देखकर खुद को भी यहां अजीब उदासी घर कर जाती है ,
भुलाने आये थे एक दर्द को ,एक और दर्द लेकर चल भी दिए।
उदासियों की एक लंबी सी लिस्ट थमा जाती हैं ये
 ऑनलाइन होकर भी अनजान बनने की शर्तें
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़