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Tuesday 17 July 2018

108.Han me aurat hun 

https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/versha-varshney-hanmain-aurat-hun

मैं हूँ कामिनी ,मैं हूँ दामिनी
हैं चंचल कटाक्ष नेत्र भी 
साहस की मैं हूँ स्वामिनी 

मैं हूँ रागिनी ,मैं हूँ यामिनी
है मुझमें सरगम भरी हुई
त्याग और धैर्य की हूँ प्रतिभागिनी 

मैं हूँ दुर्गा ,मैं हूँ काली
तेज है मुझमें समाया हुआ 
वीरता की हूँ सौदामिनी 

मैं हूँ माँ ,मैं हूँ अनुगामिनी
प्यार की करती हूं बरसातें
हूँ बेटी जैसी बड़भागिनी 

मैं हूँ धरिणी ,मैं हूँ जननी
मारकर मुझे कैसे खुश रह पाओगे
मैं ही तो हूँ जन्मदायिनी 

मैं हूँ मिश्री ,मैं हूँ तीखी
मत छेड़ना रौद्र रूप को 
आ जाऊँ जिद पर तो हूँ गजगामिनी 

मैं हूँ शील ,मैं हूँ वेद वाणी भी
सीखते हो चलना ऊँगली पकड़कर
मैं ही हूँ वो जीवन दायिनी 

माना कि बीज तुम्हारा है 
खून देकर लेकिन मैंने संभाला है 
कोसते हो फिर क्यों आज भी 
संसार है मुझसे ,मैं ही तो हूँ
ईश्वर की जीती जागती कामायनी 

- वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़



Han.main aurat hun

मेरे अल्फाज़

मैं औरत हूँ...

                                               107,kavita 


जयविजय के जुलाई अंक में प्रकाशित ,


                                       106.kavita 

दिल के अंजुमन से,
दिल के घरोंदों तक !
कस्तूरी की महक है !!
जन्नतों का नाम इश्क़ है ,
या महबूब की चाहत है !

                                  105,jeevan 

Meri kavita Amar ujala kavy par 
https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/versha-varshney-jeevan

थककर बेरहम जमाने से आंसुओं को पीना सीख लिया 
अक्सर लोगों से सुना उसने जीना सीख लिया।

अल्फाजों को ढालकर गम के गहरे समंदर में
हमने जबसे दर्द का दामन सीना सीख लिया ।

बन जाता है मरहम दर्द का गहरा सागर भी
लड़कर तूफानों से हमने चलना सीख लिया ।

जज्बातों की कद्र करेगा क्या कोई इस दुनिया में 
कांटों पर चलकर मंजिल को पाना सीख लिया।

नदिया की धारा जैसी हैं विपरीत दिशाएं जीवन की 
कश्ती हैं हिम्मत की, चट्टानों से लड़ना सीख लिया ।

आत्म विश्वास ही जीवन ,ईश्वर को सखा मान लिया 
नववर्ष की शुभ बेला में आशा का दामन थाम लिया ।









Jeevan

मेरे अल्फाज़

जीवन...

Thursday 12 July 2018

                           104,Haal  Ai Dil 

तुम बताते रहे अपना हाल ऐ दिल ,
हम सोचते ही रह गए
बांटने को दिल की हर मुश्किल ।

                                    103,duniya 

जब आप आगे बढ़ते हैं तो 
दुनिया पीछे खींचने की कोशिश
करती है । यही दुनिया का दस्तूर है ।
तो रुकना क्यों ,चलते रहो अनवरत ।

हद की भी एक हद होती है ,
टूट जाते हैं वो दिल भी 
जहां प्यार की हद बेहद होती है ।

                                     102 Kavita 



 मेरी रचना वेब पत्रिका सहित्यसुधा के जुलाई अंक

 में,


.

Wednesday 4 July 2018

                                           101,बचपन

Meri kavita amar ujala kavy par 4/7/18 
https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/versha-varshney-bachpan

वो कागज की नाव ,
वो बारिश में खेलना।
आता है क्यों याद ,
वो बड़ों का डांटना।।

न बीमारी का डर,
न रुसबाई का कहर।
आता है क्यों याद,
वो बस्ते का भीगना।।

इन्जार के वो पल,
कब जाएंगे स्कूल।
आता है क्यों याद,
वो टीचर से भागना।।

आठ जुलाई आते ही,
मानसून जब आता था।
आता है क्यों याद,
वो बचपन का याराना।

जिद करके जाना बाहर,
गजब था वो सुहाना सफर।।
आता है क्यों याद,
वो चुन्नी का लहराना।।

न रहा प्यारा बचपन,
हो गई उम्र पचपन।
आता है क्यों याद आज भी,
वो बचपन में मचल जाना।।

कितना मासूम कितना निश्छल ,
होता है बचपन सारा ।
आता है क्यों याद ,
वो वक़्त को न रोक पाना ।

चलो भूलकर स्वप्न को,
वर्तमान में आ जाएं।
क्यों न फिर से सीख लें
वो बच्चों जैसा मुस्कराना।

वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                          100,tanhai ka paigaam 

जय श्री कृष्णा मित्रो आपका दिन शुभ हो ।मेरी कविता पाक्षिक पेपर सौरभ दर्शन *(राजस्थान )में ,

                              99.दर्द की इंतहा


https://hindi.sahityapedia.com/?p=97999
शर्मनाक डूब मरो ,
अपनी बहन पर्दों में ,दूसरे की बहन काँटों में ????
https://www.linkedin.com/pulse/dard-ki-inthaa-mandsor-ghatna-par-meri-kavita-versha-varshney/
(यहां न बात धर्म की है ,न किसी विशेष जाति की ।
यहां तो बात है सिर्फ मासूम बच्चियों की इज्जत की ।
क्यों लाते हो बीच में मजहब और राजनीति को,
है हिम्मत तो दे दो “सबूत “अपने मर्द होने की)
कंठ है अवरुद्ध होठों पर भी लगे हैं ताले,
भुलाकर ईमान सिल गए हैं लवों के प्याले।।
हार रही है मानवता घुट रही है इंसानियत ,
हर पल क्यों दुर्योधन बन रहे युवा हमारे ।।
चीर हरण अस्मिता का एक खेल बन गया ,
अनगिनत बन गए हैं यहां धृतराष्ट्र बेचारे ।।
जोर आजमाइश का अब द्रौपदी पर नहीं ,
मासूमों पर बरस रहे हैं आज दहकते अंगारे।।
घोर कलयुग पनप रहा व्यभिचार के कूप में ,
तन के पुजारी बन रहे हैं आज बुद्धि के मारे ।।
देवियों के देश में हर पल अपमान होता है ,
यहां सिर्फ नवदुर्गा में कन्या पूजन होता है ।।
खोकर मूल्य अपनी संस्कृति के मानव रक्त रंजित हुआ 


लगता है पाषाण युग में जी रहे हैं हम बेचारे।

वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                                           98,vichaar 

जय श्री कृष्णा मित्रो,

विचारों की सुंदरता या बदसूरती ही 
आपको सुंदर या बदसूरत बनाती है ।

काव्य और सौंदर्य दोनों
 एक दूसरे के पूरक हैं ,
जो पढ़ने में मन को छू जाए
 वही काव्य का सौंदर्य है !!

                                    97,makadjaal 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,जोधपुर से प्रकाशित 26/6/18 के नव ज्योति .....नव एक्सप्रेस में मेरी रचना


                                       96,prabhat