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Thursday, 4 May 2017

                                        ६१.कविता 

जय श्री कृष्णा , जीवन में जब भी कुछ अचानक होता है ,तो चकित कर जाता है ।भूल ही गयी थी ,लेकिन आज आपने ये रचना भेजकर मेरी खुशी को दूना कर दिया ,थैंक्स jyoti prakash khare ji मेरी रचना को अपने पेपर , "द ग्रामोदय विजन" साप्ताहिक (झांसी एवं मऊरानीपुर से प्रकाशित) में जगह देने के लिए ।।

                                              ६०,शेर 

हिरण की चाल देखो ,
अदा पर मत जाओ ।
सजा लो दान की पेटी ,
सिर्फ भंडारे मत खाओ ।

हर बार वही गलती ,हर बार वही जुल्म ।
ट्विटर भी बेचारा क्या करे ।
इंसान ही गलतियों का पुतला है ।

                                    ५९    ,आँखें

जय श्री कृष्णा ,आज /13 /4/17 के राष्ट्रीय समाचार पत्र दैनिक हमारा मेट्रो में मेरी रचना ,

आंखें राज खोलती हैं जीवन की व्यथा का ,
उस अंतहीन सफर का जिसे कोई भी न जान सका ।
डूबती रही जिंदगी तूफानों के उतार चढ़ाव में ,
क्या इंसान दिल की सच्चाई पहचान सका ।
प्यार पाने को इस जीवन में ठोकरें खाता रहा ,
नामंजूर हुई इबादत फिर भी सिर झुकता ही रहा ।
गगरी हो मिट्टी की या हो फिर आंखों की कोर ,
छलक ही जाती है जब प्रीत की दिल मे हो घटा घनघोर
साये भी दूर होने लगें "वर्षा "जब अपने साये से छिटक कर,
भर आती है ना जाने क्यों आंखों की मधुशाला ओ कृष्णा चितचोर ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ

                                             ५८.बचपन 

जिंदगी जब कभी रुलाने लगे ,
बचपन को याद कर लेना ।
वो दस पैसे की चार गोली ,
पत्थर के चूरन की डांट खा लेना ।

                                                          ५७.अंतस 

जय श्री कृष्णा ,
चलिए फिर से झूठी वाह वाह करते हैं ,
भूलकर अपना अंतस मुजरों पर डांस करते हैं ।

                                       ५६.गजल 

जय श्री कृष्णा , मेरी एक गजल मुम्बई की मासिक पत्रिका jaivijay के अप्रैल अंक में 

                               ५५,दुनिया और हम 

http://sahityapedia.com/%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AE-79186/

हैरान हो जाती हूँ दुनिया को देखकर ,
समझ में कुछ नहीं आता ।
भरते हैं जो हर पल दावा वफ़ा का ,
भुलाने में क्यों एक पल भी नहीं जाता ।
झरते हैं आँखों से अश्क कुछ इस तरह ,
जैसे बिन बादल की बरसात हो ।
रोते हैं छिप कर दीवारों से भी ,
जिन्हें महफ़िल में रोना नहीं आता ।
जख्म हैं या इलाही किसी चोट के
या कर्मों का जनाजा निकाला है ।
गैरों के साथ रहते हैं फक्र से ,
अपनों का दर्द सहा नहीं जाता ।
दरिया दिल होकर भी हाथ मलते रहे ,
जाने क्यों मरहम भी फ्री नहीं आता ।
जश्ने इश्क़ में भुला दिया खुद को ,
कुछ इस तरह जैसे दर्द से नहीं है ,
अपना जन्मों से कोई नाता ।।