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Tuesday 31 January 2017

                           २१.गुत्थियाँ प्रेम की 

जय श्री कृष्णा ,मेरी रचना दैनिक ट्रू टाइम्स (दिल्ली और लखनऊ )में 
गुत्थियां प्रेम की अनसुलझी रह जाती हैं ,
सरगर्मियां दिलों की ठंडी हो जाती हैं ।
वीभत्स हो जाता है प्रेम का पैमाना भी ,
जब स्वार्थ की क्रिया प्रेम से ऊपर हो जाती है।
कशिश कहो या सिर्फ देह का आकर्षण ,


खो ही जाता है हवा में कुछ इस तरह ।
ज्यूँ इंसान की फितरत समुद्र की लहरों की तरह,
दिलों को गहरे दर्द दे जाती है।
रात का सूनापन चीर देता है सन्नाटों को भी ,
प्यार की हलकी सी झलक जब धीमे से ,
आकर दिलों को दर्द से निजात दे जाती है ।
सुप्त प्यार भी अहसास दिला ही देता है ,
खुद के बजूद का ।
देखो न बेहतर है प्यार को महसूस करना ,
कब नफ़रत की आग दिलों को दिलासा दे पाती है ।।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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