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Thursday 1 June 2017

                                      ८७.अल्पना 

जय श्री कृष्णा मित्रो,

देहरी के बाहर रखी गयी अल्पना ,
दिल को सुकून दे जाती है ।
लगता है जैसे प्यार ही तो है ,
जिसे बाहर सजाओ या घर में 
अपनी छाप छोड़ ही देता है दिल में ।
नन्हे नन्हे हाथों से सजी हुई ,
दिल को आत्मविभोर कराती
प्रतीत होती है ।
अचानक हवा का एक झोंका 
उड़ा ले जाता है उन रंग भरे सपनों को ।
आंसुओं से लबरेज उसके चेहरे को
देखकर दिल रोने लगता है ।
जो एक छोटी सी बात पर रो जाती थी ,
आज इतनी समझदार कैसे हो गयी ।
होना ही था ,वरना इतनी बड़ी जिंदगी ....
एक अल्पना ही तो होती है बेटियां ,
पता नहीं कब युद्ध के मैदान की
बारीकियां सीख जाती हैं ।
धीरे से कान में सहलाती हुई आवाज से 
बरबस वर्तमान में आ जाती हूँ ।
बिगड़ी हुई रंगोली को देखकर ,
फिर से मुस्करा लेती हूं ।
रंगोली का क्या है फिर से बन जाएगी ,
लेकिन वो मीठी सी छुअन क्या फिर से 
लौट पाएगी ,शायद नहीं ?
क्योंकि बेटियां कब ठहर पायी हैं 
ढलते वक़्त की तरह ?
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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