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Thursday, 1 June 2017

                                             ९०.इश्क

जय श्री कृष्णा 

भूल जाऊ खुद को या जहाँ में आग लगा दूँ ,
ए खुदा,तू ही बता अब किसको गवाह बना दूँ !!

नादाँ से जिंदगी समझती क्यूँ नहीं ,
आग है इश्क या नफरतों का सिला दूँ !!

फना हो गए क्यूँ वो दर ओ दीवार ,
सुलगती थी जहाँ दिलों कि मस्ती ,
कहो तो ए जिंदगी ,खुद को मिटा दूँ !!

रहमो करम था इस नाचीज पर ,
या जुल्म तुमने किया ,ए खुदा 
कहो तो सही एक बार इश्क का नाम ही जला दूँ !

वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़ 

                                                  ८९.यादें 

यादों को बनाकर चिराग कैसे अंधेरों से जीत सकते हैं !
कंधे पर रखकर औरों के बन्दूक कैसे दौड़ सकते हैं !
जलानी होगी हिम्मत कि मशाल गर अकेले चलना है ,
उदासी को भुलाकर ही मंजिल को हासिल कर सकते है

                                                ८८.दर्द 

जय श्री कृष्णा 

बहुत हुआ सब ,
अब और नहीं ।
जिंदगी दर्द है 
तो दर्द ही सही ।
क्यों करें किसी 
और से उम्मीद ,
दामन में हमारे 
कांटे है गर 
तो वो भी सही ।
मित्रता का लेकर,
बहाना चल दिये,
पथ पर अगर ।
दुश्मनी मिली ,
तो वो भी सही ।
नहीं समझ पाते 
अपने भी मजबूरी,
तुम भी न समझो 
कोई गम नहीं ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                                      ८७.अल्पना 

जय श्री कृष्णा मित्रो,

देहरी के बाहर रखी गयी अल्पना ,
दिल को सुकून दे जाती है ।
लगता है जैसे प्यार ही तो है ,
जिसे बाहर सजाओ या घर में 
अपनी छाप छोड़ ही देता है दिल में ।
नन्हे नन्हे हाथों से सजी हुई ,
दिल को आत्मविभोर कराती
प्रतीत होती है ।
अचानक हवा का एक झोंका 
उड़ा ले जाता है उन रंग भरे सपनों को ।
आंसुओं से लबरेज उसके चेहरे को
देखकर दिल रोने लगता है ।
जो एक छोटी सी बात पर रो जाती थी ,
आज इतनी समझदार कैसे हो गयी ।
होना ही था ,वरना इतनी बड़ी जिंदगी ....
एक अल्पना ही तो होती है बेटियां ,
पता नहीं कब युद्ध के मैदान की
बारीकियां सीख जाती हैं ।
धीरे से कान में सहलाती हुई आवाज से 
बरबस वर्तमान में आ जाती हूँ ।
बिगड़ी हुई रंगोली को देखकर ,
फिर से मुस्करा लेती हूं ।
रंगोली का क्या है फिर से बन जाएगी ,
लेकिन वो मीठी सी छुअन क्या फिर से 
लौट पाएगी ,शायद नहीं ?
क्योंकि बेटियां कब ठहर पायी हैं 
ढलते वक़्त की तरह ?
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

                                        ८६.रिश्ते 

Jai shree krishna mitro ,


हर नया रिश्ता
आजमाता है ,
परखता है ।
दीवानगी की हद 
तक अश्क़ दे जाता है ।
वो क्या जाने 
उन बहते हुए अश्क़ों 
की कीमत ,
जिन्हें सिर्फ दिल से 
खेलना आता है ।
इम्तहान के दौर से 
जब भी गुजरती है 
बंदगी ,
दिल मे एक तूफान
समा जाता है ।
वो क्या जाने 
आंसुओं की कीमत जिन्हें
सिर्फ रुलाने में मजा आता है ।

                                 ८५.जिंदगी 

सिखा देती है जिंदगी सबक सारे ,
गवाह है देखो चाँद और तारे ।


                                                  ८४.शादी या बोझ 

जय श्री कृष्णा मित्रो ,मेरा लेख भोपाल के साप्ताहिक अखबार "अग्रज्ञान" में ,आभार संपादक मंडल ।
पिता ,जिसके बिना जीवन की यात्रा अधूरी ही है । जब बच्चा रोता है तो माँ कहती है आने दे आज तेरे पापा को तेरी शिकायत करूँगी । जब बच्चा खुद को असहाय पाता है तो पहले पिता के पास अपनी शिकायत लेकर जाता है । जिंदगी का वो मंजर जो बच्चे के लिए अधूरा होता है पिता की ख्वाईश बन जाता है । खुद की इच्छाओं को त्यागकर बच्चों की इच्छाओं को पूरा करता है एक पिता । जब भी बाजार में कोई नई फ्रॉक देखी तो सबसे पहले बेटी का ख्याल आता है । अधूरी तमन्नाओं को पूरा करना ही जैसे उसका उद्देश्य बन जाता है । पिता कभी नहीं रोते लेकिन जब अपनी बेटी विदा होती है तो वही एक बच्चे की तरह रोने लगते हैं । एक बेटी की पहली पहचान पिता से ही होती है ,फिर अचानक ऐसा क्या होता है कि वो बेटी को भूल जाता है ? आंखों में प्यार की तमन्ना लिए ,बरसों यूँ ही गुजर जाते हैं । जीवन में फिर भी एक उम्मीद रहती है पिता से मिलने की ,उनसे बहुत सारी बातें करने की । जिंदगी का सही अर्थ जानने की । एक छोटी सी बच्ची बनकर जिद करने की ,और अचानक एक दिन पता लगता है कि पिता तो इस दुनिया मे ही नहीं ।एक बज्रपात होता है और लगता है जैसे दुनिया ही रुक गयी । क्यों होता है ऐसा ?क्यों माँ बाप अपनी झूठी जिद और ख्वाइशों के लिए एक बच्चे की जिंदगी से खिलवाड़ कर जाते हैं ? क्यों छोड़ देते हैं उसको तमाम उम्र सिसकने के लिए ?क्या खुद की इच्छाएं बच्चों से भी ज्यादा सर्वोपरि होती हैं ,यदि हाँ तो फिर ऐसे लोगों को शादी ही नहीं करनी चाहिए ।किसने अधिकार दिया है उन्हें किसी की जिंदगी बर्बाद करने का ? क्या ऐसा बच्चा अपनी जिंदगी ठीक से बसर कर सकता है जो माता पिता दोनों के प्यार से वंचित रहा हो । अपने सुख की खातिर एक दूसरी जिंदगी को भी नर्क में डालकर क्या ऐसे माता पिता माँ बाप कहलाने योग्य हैं ? ये दुनिया कहाँ जा रही है ,सोचो और शादी जैसे पवित्र बंधन को गाली मत दो। अपने साथ एक और जीवन को अंधेरा मत दो । बच्चों को पैसों से ज्यादा माँ बाप के उचित प्यार और मार्गदर्शन की जरूरत होती है । क्या आज का पढ़ा लिखा समाज अपने बच्चों को सही परवरिश दे पा रहा है ? सोचने की बहुत जरूरत है ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़