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Monday 19 February 2018

                                 २५,नारी 

मेरी कविता कनाडा की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका "प्रयास "के फरवरी अंक में ,आभार आदरणीय Saran Ghai ji .

नारी हूँ मैं , अबला तो नहीं ,एक ठहरा हुआ बसंत भी हूँ

त्याग का प्रतिमान बनकर खुद को ही छला करती हूं ।

कभी कभी अपनी तन्हाइयों से बात करती हूं ।
जानने का दिल के गहरे राज, बहुत प्रयास करती हूं ।।

सब कुछ तो है मेरे पास ,फिर उदासी का दौर क्यों है ।
अतीत में जाकर क्यों दबे हुए राज, उजागर करती हूं ।।

वो हसीन वक़्त का नजारा, जो कभी जान से भी प्यारा था ।
उनींदी आंखों से क्यों ख़्वाबों को नजदीक महसूस करती हूं ।।

तुम्हारे लिए वो सिर्फ एक शर्त रही होगी ,
लुटाकर मेरी खुशियों की तमाम उम्र
क्यों तुमको याद करती हूं ।।

पास हो मेरे दिल के आज भी, कुछ इस तरह ।
रुके हुए लम्हों को जैसे हर पल जीया करती हूं ।।

सुबह की हल्की धूप जैसे दिलों को राहत देती है ,
शाम की हल्की हवाओं में सुकून महसूस करती हूं ।।

मुश्किल है बहुत प्यार की जगह समझौते को देना ।
बुझे हुए दीप में आज भी यादों की चिंगारी भरती हूँ ।।

मैं नारी हूँ वही सदियों पुरानी ,आज भी उसी मोड़ पर खड़ी ।
खुशियों की फिराक में हर पल खुद से लड़ाई लड़ती हूँ ।।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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