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Thursday 19 April 2018

                                     ५४,ऑनलाइन 

मेरा व्यंग्य आज के करंट टॉपिक पर ,
"ऑनलाइन "
hindi.sahityapedia.com

देखकर उनको ऑनलाइन
एक ज्वार उठता है दिल में ,
कभी थकते नही थे जो बात करते हुए ,
आज रुलाती हैं सिर्फ खामोशियाँ उनकी ।
वो अदाएं जिन पर हुआ करते थे कभी वो वारी,
आज गुस्से की वजह बन जाती है ।
ये कैसा है ऑनलाइन का किस्सा ,
सवाल उठता है मन में ।
शायरी ,शेर और ना जाने कितनी 
अनगिनत कभी खत्म न होने वाली बातें ,
लगता था जैसे कितनी हसीन दुनिया होती है ऑनलाइन की ।
वक़्त वक़्त की बात है कभी सहज लगती थी जो बातें ,
आज न जाने क्यों थका देती हैं ।
बड़ी बेरहम होती हैं ये ऑनलाइन की बेजोड़ रस्में
न रहे वो जज्बे ,न ही शक्ल उनको भाती है ,
मिलती है बस एक धमकी सब कुछ बंद करने की
बड़ी ही शराफत भरी होती हैं ये ऑनलाइन की किस्में
नजर आती है कभी परी तो कभी स्वीटी भी मिल जाती है ,
पूछते नहीं थे जिसे अपने भी ,वही रोशनी की किरण बन जाती है ।
महबूबा या सोनपरी बनकर निखर जाती है
बड़ी अदाओं से भरी होती हैं ये ऑनलाइन की किश्तें ।
दुख के मारे भी होते हैं यहाँ कितने मजनूं परेशान ,
नासाज होते हैं अपनी घरवाली से ,
बनाकर क्षद्म नाम से एकाउंट खुश नजर आते हैं ।
कितनी मोह्हबत लुटाती हैं यहां
 ये ऑनलाइन काउंसिलिंग की बेतहाशा महफिलें ।
देखकर खुद को भी यहां अजीब उदासी घर कर जाती है ,
भुलाने आये थे एक दर्द को ,एक और दर्द लेकर चल भी दिए।
उदासियों की एक लंबी सी लिस्ट थमा जाती हैं ये
 ऑनलाइन होकर भी अनजान बनने की शर्तें
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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