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Thursday 4 May 2017

                             ६२.कविता 

जय श्री कृष्णा मित्रो आपका दिन शुभ हो । मेरी कविता कल 17 /4/17 के राष्ट्रीय दैनिक हमारा मेट्रो में

अनपढ़ सी तन्हाई कब पढ़कर समझ आई ,
पढ़े लिखे लोगों के दरमियान है कैसी बड़ी खाई ।

भूलकर हंसना गाना ,करते हैं बातें धन दौलत की ,
क्यों इंसान को नफरत और दुश्मनी ही रास आई ।

बंजारों जैसा जीवन ,साथ चले न बिस्तर न मक्खन मलाई ,
पाप और पुण्य के बीच की रात दिन करते जो सफाई ।

जाम का नशा है या खून पसीने की कमाई ,
गंवाकर सारी उम्र भी कुछ दौलत न काम आई ।

बैठ संतों के संग ,कभी दो पल की शांति भी कमाई ?
अंतिम यात्रा के दो शब्दों से क्या जन्नत मिल पाई ?

मिला जो अनमोल जीवन उस परम सत्य से ,
चलो मिलकर दो घड़ी तो प्रभु कीर्तन में बिताएं ।

यही है स्वर्ग यही है नर्क ,न मिलेंगे कहीं और कृष्ण कन्हाई ,
जीवन का क्या भरोसा ,आज की मानव सेवा ही है कल की कमाई ।
वर्षा
APRIL 16

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