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Friday, 16 September 2016

८९.रचना

अलंकारों से सजाकर देखो कितना सुसंस्कृत कर दिया
देकर सुन्दर उपमाएं भद्दे को भी अलंकृत कर दिया ।।

बेजोड़ हैं इंसान की अनगिनत पर महत्वहीन परंपराएं,मतलब के सामान को भी जरूरी कर दिया ।।

नहीं दिखाई देती किसी गरीब की वेदना प्रत्यक्ष में ,पर वेदना को शब्दों में ढालकर कमाल कर दिया ।।

रोती है गरीब की बेटी कपड़ों को इज्जत बचाने के लिए
रईसी ने (कपडों )😢इज्जत को तार तार कर दिया ।।

बजाते है सैकड़ों शंख नगाड़े रोज मंदिरों में ,
दबाकर घर में माँ की आवाज को दर्द से भर दिया ।।
घर में खाने को दो वक्त की रोटी भी नहीं ,
समाज में दिखाने को झूठी शान कर्ज लेकर घर भर दिया ।।

शराब की लगी ऐसी लत जबर्दस्त इंसान को ,
खातिर नशे के पत्नी को बाजार में नीलाम कर दिया ।।

दिन में लगाते हैं हजारों पहरे अपनी बहू बेटियों पर ,
रात में इज्जतदारों ने क्यों "बाजारों" को रोशन कर दिया ।।

नहीं आती शर्म क्यों इज्जत के ठेकेदारों को ,
क्यों दूसरों की इज्जत को सरेआम बे आबरू कर दिया ।।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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