६०,लेख
मेरा लेख बदायूं एक्सप्रेस पर
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प्रेम और घृणा के बीच के भाव न जीने देते हैं न आगे बढ़ने देते हैं ।अंतर्मन के भाव जैसे कुछ कहना चाहते हुए भी सिमट जाते हैं । पीड़ा और अहसास के साये जैसे दूर दूर तक हमें अपने पास नहीं आने देते और हमारी रिक्तता हर पल खुद को बोझिल बनाती चली जाती है । हम जिसे अपना समझकर खुश होते हैं वो हमारा होता ही कब है ?कुछ छिपे हुए स्वार्थ ही तो हम सब को एक दूसरे से जोड़े रखते हैं और हम वक्त की धारा में बहते चले जाते हैं । नीरसता ,व्याकुलता ,अकेलापन जब भी छोटे से प्रकाश को देखता है तो लगता है जैसे यही वो किरण है जिसका कब से इंतजार था । भाव , उद्वेग को चीरकर जैसे कालिमा बाहर भागना चाहती है ।हर सुबह सूरज का इंतजार हम सब को जीने की राह दिखाता है लेकिन क्या हम खुले दिल से उस किरण का स्वागत कर पाते हैं ?नहीं कुछ और अच्छा पाने की चाहत में आज की खुशी को भूलकर उस अनजानी खुशी की तलाश में निकल पड़ते हैं जो न कभी किसी ने देखी न महसूस ही की ।कहाँ जा रहे हैं हम ?किसकी तलाश है ?कौन है वो।खुशी ,चलो एक बार फिर से अनजान बनकर बच्चा बन जाते हैं ,शायद वो खुशी मिल जाये ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
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