६7.अस्तित्व
जय श्री कृष्णा , यूँ तो हमें किसी काम के होने की खबर पहले से ही मिल जातीं है तो हम उसके लिए तैयार हो जाते हैं । जब कुछ काम अचानक हों ,तो आनंद ही कुछ और होता है । घंटी बजी और पोस्टमैन ने मेरा नाम लिया ,सोचा कूरियर होगा ,लेकिन जब लिफाफा खोला तो "द ग्रामोदय विज़न "( झांसी से प्रकाशित साप्ताहिक )को पाकर अपार खुशी हुई । मेरी कविता के साथ साथ उसमें बाकी खबरें और लेख भी पढ़े । पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा । आप जो भी करते हैं ,आश्चर्यजनक होता है मेरे लिए ।पेपर भेजने और मेरी कविता लगाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय Jyoti Prakash Khare ji .
अस्तित्व
बांधकर खुद को ,
ख्वाईशो सी एक गठरी ,
बेताब क्यों है उड़ने को जिंदगी।
मार लिया गर मैंने खुद को
जिम्मेदारियों के बोझ तले ,
मुश्किल है ख्वाब का दमन करना ।
उड़ती चिरैया सी ये जिंदगी ,
पंख है नामुमकिन तोड़ना ।
मैं मैं हूँ ,
किसी का प्रारूप क्यों बनूँ ,
ये जिंदगी है सिर्फ मेरी ,
क्यों किसी और की तस्वीर बनूँ ।
मंदिर की वो बेजान मूरत ,
जिसकी कोई इच्छा नहीं
चाहते हैं सिर्फ पूजना
क्यों तुम्हारी याचिका बनूँ ।
हाँ मैं सिर्फ मैं हूँ ।
गर चाहते हो मुझे अपनाना
तुम मेरे ही रूप में ,
कदम बढ़ाकर तो देखो ,
शायद मैं ही तुम्हारी तारक बनूँ ।
No comments:
Post a Comment