६२.कविता
जय श्री कृष्णा मित्रो आपका दिन शुभ हो । मेरी कविता कल 17 /4/17 के राष्ट्रीय दैनिक हमारा मेट्रो में
अनपढ़ सी तन्हाई कब पढ़कर समझ आई , पढ़े लिखे लोगों के दरमियान है कैसी बड़ी खाई । भूलकर हंसना गाना ,करते हैं बातें धन दौलत की , क्यों इंसान को नफरत और दुश्मनी ही रास आई । बंजारों जैसा जीवन ,साथ चले न बिस्तर न मक्खन मलाई , पाप और पुण्य के बीच की रात दिन करते जो सफाई । जाम का नशा है या खून पसीने की कमाई , गंवाकर सारी उम्र भी कुछ दौलत न काम आई । बैठ संतों के संग ,कभी दो पल की शांति भी कमाई ? अंतिम यात्रा के दो शब्दों से क्या जन्नत मिल पाई ? मिला जो अनमोल जीवन उस परम सत्य से , चलो मिलकर दो घड़ी तो प्रभु कीर्तन में बिताएं । यही है स्वर्ग यही है नर्क ,न मिलेंगे कहीं और कृष्ण कन्हाई , जीवन का क्या भरोसा ,आज की मानव सेवा ही है कल की कमाई । वर्षा |
APRIL 16
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