१८,जीवन
ये कैसी फिजा है ।
जल रहा है दिल,
न उठता धुँआ है ।
बेबस है जलजला ,
चुप ये काफिला है ।
आँसूं है गमगीन ,
न लगती दुआ है ।
भरम प्यार का यूँ
दिल में छिपाए ,
छलते रहे खुद को
मुस्कान के दीप जलाए ।
न कोई सफर है ,
न कोई है साथी ।
अजब है पहेली ,
गजब है ये उलझन।
ये कैसा है जीवन ,
ये कैसा है उपवन ।
सुलग ये रहा है ,
झुलस क्यों रहा है ।
यही है जो जीवन ,
जो कातिल बना है ।
उलझन ही उलझन
तो क्यों है ये जीवन ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
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