१९६,बेटियां
जय श्री कृष्णा मित्रो ,शुभ संध्या ।मेरी कविता बेटियां आज के नोएडा से प्रकाशित हिंदी दैनिक वर्तमान अंकुर में ,
महकती हुई सुगंध ,
महलों की वो गंध ।
दिलों की राजकुमारी ,
पापा से अनुबंध ।
अनजानी सी डोर ,
लगती जैसे भोर ।
नाचती हर पल ,
महकाती पोर पोर ।
तितली जैसी चंचल ,
गुड़िया जैसी चाल ।
क्यों बन जाती बेटियां ,
दुनिया में आज भी भूचाल ।
जीवन लगता दुश्वार ,
माँ ने मानी हार ।
कैसे मनाऊं प्यार को ,
बैरी हुआ जब संसार ।
माँ का प्रतिरूप है ,
दादी का अवतार ।
बहन है वो भाई की ,
पापा का है प्यार ।
झंकार से पायल की ,
खिल जाते दिल के द्वार ।
क्यों बन जाते हो निर्मोही ,
कोख में मार कर तलवार ।
गीतों जैसी मधुरता ,
साज जैसा है दुलार ।
बेटियां हैं तो हंसता है ,
आज भी सारा संसार ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
महलों की वो गंध ।
दिलों की राजकुमारी ,
पापा से अनुबंध ।
अनजानी सी डोर ,
लगती जैसे भोर ।
नाचती हर पल ,
महकाती पोर पोर ।
तितली जैसी चंचल ,
गुड़िया जैसी चाल ।
क्यों बन जाती बेटियां ,
दुनिया में आज भी भूचाल ।
जीवन लगता दुश्वार ,
माँ ने मानी हार ।
कैसे मनाऊं प्यार को ,
बैरी हुआ जब संसार ।
माँ का प्रतिरूप है ,
दादी का अवतार ।
बहन है वो भाई की ,
पापा का है प्यार ।
झंकार से पायल की ,
खिल जाते दिल के द्वार ।
क्यों बन जाते हो निर्मोही ,
कोख में मार कर तलवार ।
गीतों जैसी मधुरता ,
साज जैसा है दुलार ।
बेटियां हैं तो हंसता है ,
आज भी सारा संसार ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़
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