१६५ ,प्रकाशित कविता
जय श्री कृष्णा मित्रो ,आप सभी की शाम सुहानी हो ।
सौरभ दर्शन साप्ताहिक (भीलवाड़ा )
मिट्टी के पुतलों जैसा जीवन ,
ठोकर लगी और टूट गए ।
कैसा गुरूर कैसी शान ,
मिट्टी में ही सिमट गए ।
सांझ हुई खुशियों की आस में ,
जरा सी बात पर पिघल गए ।
अधरों पर आ गयी मुस्कान ,
बच्चों जैसे बहक गए ।
कठपुतली ऊपर वाले की ,
कुछ भी अपने हाथ नहीं ।
जब भी खींची डोरी उसने ,
पल भर में ही सिमट गए।
देख तमाशा दुनिया का ,
ऐ दिल क्यों इतराता है ।
भेजा था ऊपरवाले ने
नेक किसी मकसद से ।
भूलकर अपनी मंजिल ,
झूठी दुनिया मे भटक गए
सौरभ दर्शन साप्ताहिक (भीलवाड़ा )
मिट्टी के पुतलों जैसा जीवन ,
ठोकर लगी और टूट गए ।
कैसा गुरूर कैसी शान ,
मिट्टी में ही सिमट गए ।
सांझ हुई खुशियों की आस में ,
जरा सी बात पर पिघल गए ।
अधरों पर आ गयी मुस्कान ,
बच्चों जैसे बहक गए ।
कठपुतली ऊपर वाले की ,
कुछ भी अपने हाथ नहीं ।
जब भी खींची डोरी उसने ,
पल भर में ही सिमट गए।
देख तमाशा दुनिया का ,
ऐ दिल क्यों इतराता है ।
भेजा था ऊपरवाले ने
नेक किसी मकसद से ।
भूलकर अपनी मंजिल ,
झूठी दुनिया मे भटक गए
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