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Monday 18 March 2019

129, 4/ 9 18 
सारे रिश्ते नाते सिर्फ जरूरत तक ही सीमित होते हैं ।जब इंसान ईश्वर को भुला सकता है तो हम तो सिर्फ इंसान हैं ।

मंजिलों पर पहुंचकर भी जज्बात अधूरे ही रहे ,
तन्हा तन्हा जाने क्यों मेरे अरमान रहे।
बस्तियां ईमान की खाकसार हुई ,
मंदिरों में फिर भी घंटा मेहरबान हुए ।

तलब लगी थी बहुत आँसुओं को 
बहकने की गुमनाम अंधेरों में ।
इबादत में डूबे हम कुछ इस तरह ,
दिल पर लगे जख्म भी परेशान हुए ।

चिराग वफाओं के ख़्वाब बनकर रहे
तूफान भी पतवार की तरह चले ।
गुलशन में ताउम्र बिदुओं की तरह ,
पल पल अक्सर खयालों के ताबूत जले ।

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