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Thursday 28 July 2016

                                          ६६.

मेरी  रचना आज के नॉएडा के "दैनिक चन्द्रहार "में ,

.कलम
मुद्दतों से तुझे लिखने को कलम मचल रही थी ,
साथ पाने को तेरा न जाने क्यूँ कुछ बुन रही थी !
अहसास था जैसे लम्हों को बस तेरा ,
तेरे साथ चलने को न जाने क्यूँ चहक रही थी !
कभी तन्हाई ,कभी महफ़िल की थी सदायें ,
ये कैसी आग थी जो खुद ही दहक रही थी !
कागज भी जार जार था जैसे तेरे न होने से ,
लगता था स्याही की तबियत भी सुलग रही थी !
फटे हुए कागज पर जब न लिखना कुछ गवारा हुआ ,
अचानक कलम का निब भी आवारा हुआ !!
कब तक लिखेगी कलम भी अपनी इबारत को ,
जब साथी ही उसका बेगाना हुआ !!
छोड़कर एक निश्छल सी सांस जब बुरे दौर से गुजर रही थी ,
कहाँ थी तेरी मशरूफियत जो धीरे धीरे तुझे ही निगल रही थी !!
एक ज़माना हुआ कलम को कागज से बिछुड़े हुए ,
आज वो नयी सदी की आग में झुलस रही थी !!

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