१०५,रिश्ते
रिश्तों को निभाना ही शायद जुर्म था मेरा ,
देती रही दुनिया हर बार वही जख्म पुराना ।
देती रही दुनिया हर बार वही जख्म पुराना ।
ऐ काश मैं पहले की तरह पत्थर की होती ।काश गुरुजी आपने मुझे मोम न बनाया होता । जी रही थी अपनी बेरुखी के साथ ,काश मुझे यूँ समझाया न होता । एक स्त्री के लिए स्त्री होना इतना मुश्किल क्यों है ?क्यों उसे दूसरों के बंधन में जीना होता है उम्र भर ?आपने कहा था ,स्त्री एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है लेकिन कहाँ ?किस जगह ? यदि ऐसा है तो हमारे समाज मे सिर्फ स्त्रियों के लिए ही एक दायरा क्यों है पुरुषों के लिए क्यों नहीं ?हमारा समाज आज भी ऊपर से दिखावा करता है नारी की आजादी का लेकिन क्या वास्तविकता यही है ?इस पुरूष प्रधान समाज मे कितनी महिलाएं अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करने की हिम्मत रखती हैं । एक डर उन्हें हमेशा कुछ भी कहने से रोकता है । क्या जो मान्यताएं पुरूष के लिए हैं वो एक स्त्री के ऊपर लागू हो सकती हैं । क्यों सदियों से सारे नियम औरतों के लिए ही बनाये जाते हैं । बचपन से लेकर बृद्धावस्था तक क्यों औरत के लिए सामाजिक बंधन तय किये जाते हैं । आज भी जब तक एक औरत सबकी इच्छानुसार जीती है वो महान , जिसने भी अपने लिए कुछ अलग सोच बनाई वो चरित्र हीन ।लेकिन ऐसा क्यों ??????,क्या कोई आदर्शवादी पुरुष इन बातों को समझा पाया है ।जब वेदों की रचियता एक नारी हो सकती है तो नारी को ही वेदों को पढ़ने पर पाबंदी क्यों ?????????
यही दोगलापन एक औरत को बेबसी की जिंदगी जीने को मजबूर करता है और वो यूँ ही घुट घुट कर ताउम्र जीती हुई भी मुर्दा ही रहती है ।।
यही दोगलापन एक औरत को बेबसी की जिंदगी जीने को मजबूर करता है और वो यूँ ही घुट घुट कर ताउम्र जीती हुई भी मुर्दा ही रहती है ।।
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