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Sunday 9 July 2017

                                    ११५ कविता              


जय श्री कृष्णा ,मेरी दो कविताएं नई दिल्ली से प्रकाशित आज 9/7/17के दैनिक करंट क्राइम में ,आभार संपादक मंडल

1भुला क्यों नहीं देते वो हर्फे गजल ,
मुखड़ा हूँ मैं जिसका कुछ तन्हा सा ।
चांदनी में गुजारी थी कई रातें तेरी यादों में ,
अश्क़ हूँ वही कोई प्यासा सा ।
अंदाज भी जुदा था तेरे रुखसार का ,
परिंदा तो नहीं था एक मेरा दिल ।

जानशी था वो महकता गजरा तेरे खयालों सा ।
तू चाहे तो एक अश्क़ भी मोती बन सकता था ,
दिल मे भरा था मेरे प्यार जिंदगी भर का
गजल कहूँ या कविता ऐ हमनसी तुझको
तू है मेरी मैकदा , मैं हूँ तेरा प्याला एक अदना सा ।


2दिल जार जार है ना जाने किसका इंतजार है ,
आंखों में हैं आंसूं पर लबों पे इनकार है ।
बेखुदी है प्यार की या रुसबाइयों का जहर है ,
इरादों में हमारे आज भी जंग का इजहार है ।
सलवटें हैं इरादों में या फिक्र है जमाने की ,
दिलों में जाने क्यों छिड़ी रार ही रार है ।
गम हैं बेइंतहा जिधर भी नजर उठाइये ,
कब्र है दिलों की और बेईमान बहार है ।
रवायतों पर आज भी फना है इश्क़ ,
कैद में है बुलबुल,रकीब पर जा निसार है।




मयखाने में बंद है शराब की बोतलें कुछ इस कदर ,
सड़क पर है इंसानियत ,रोशन हुए बाजार हैं ।
शौक ऐ दिल्लगी का न इस कदर फरमाइए ,,
कि लगता आज इश्क़ भी सिर्फ बाजारू इसरार है ।।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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