67.मेरी रचना ::-
पाप के भार से पृथ्वी भी अकुला रही थी
दबी जा रही थी बोझ से आँसूं बहा रही थी ।
खो रहा था स्वाभिमान कलि के प्रभाव से ,
ज्यूँ दस्यु के डर से अबला बिलख रही थी!
आसमानी शक्ति ने तोड़ डाले बंधन सारे,
दुष्ट मनोवृति से जब धरा यूँ सुलग रही थी ।
अभिमान का विध्वंश कर समय की मांग थी
यूँ प्रजा ईश्वर की सत्ता को ललकार रही थी!
व्यर्थ हो गए अस्त्र शस्त्र बंदूक भी शांत थी,
हवा के झोंके में जैसे प्रलय चिंघाड़ रही थी!
कम मत समझना ईश्वरीय कोप को ऐ वंदे
अवसाद के खंजर को दुनिया भुगत रही है ।
रुलाकर औरों को सुख की कल्पना व्यर्थ है
कटु सत्य को आज दुनिया समझ रही है !!
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