106.ख़्वाबों के सहारे कब तक जिया जाए ,
मुमकिन है जीना सपनों को गर हक़ीक़त बनाया जाए।
इंसान मकान बनाता है सुकून के लिए ,पता नहीं सुकून कहाँ खो जाता है ।
दमित इच्छाओं का शोध करना जैसे अंगारों पर पाँव रखना ।स्पष्टीकरण का निवारण बाधा ही तो है मंजिल की ।
नौ दिन की चाँदनी
फिर अंधेरी रात ।
माँ तो .......माँ है ,
कैसा ये भेदभाव ।
फिर अंधेरी रात ।
माँ तो .......माँ है ,
कैसा ये भेदभाव ।
दो पुरुषों की लड़ाई में
स्त्री गाली बन जाती है
उसकी हो या मेरी हो
माँ की इज्जत तो जाती है ।
उसकी हो या मेरी हो
माँ की इज्जत तो जाती है ।
No comments:
Post a Comment