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Saturday 28 December 2019

80,july



"#सपना बनाम औरत # 
दिल में उम्मीदों को दबाये 
घूँघट का एक छोर मुँह में दबाये ।
चली जा रही थी एक कठपुतली की तरह ,
जैसे वो औरत नहीं बेजान लाश थी ।

उड़ सकती थी वो भी खुले आसमान में ,
लगा सकती थी अपनी उड़ान में चार चाँद 
लेकिन वो बेबस थी घूँघट और फेरों में कैद थी 
उसके कोई सपने क्यों हो सकते थे क्योंकि वो सिर्फ एक औरत थी ।

जी सकती थी घर के बाहर बैठकर 
बाकी औरतों की तरह खुद को बेहूदे चुटकुलों के साथ ।
न जाने क्या गुरूर था फितरत में उसकी 
खोकर रह गयी वो गुमनाम चिन्दियों की तरह 
क्योंकि वो कल्पना में जीती कोई नार थी ।

मायके और ससुराल के बीच में फंसी हुई एक बेबस लड़की 
उसकी पहचान सिर्फ मायके और ससुराल के अलावा कैसे हो सकती थी 
बोझ की तरह डाल दिया एक खाई में 
ससुराल के लिए वो मात्र एक गुलाम थी ।

बुलंदियों पर पहुँचना जैसे एक मीठा ख्वाब था ,
सपनों को उड़ान देना जैसे महापाप था ।
अपनी खुशियों के लिए जीना सिर्फ सपना था 
हाँ आसमान को सिर्फ निहार सकती थी ।
क्योंकि औरत होना उसका सबसे बड़ा गुनाह था 

21 वीं सदी की तुलना मत करना 
उस 19वी सदी की नारि से 
इज्जत देना ही उसका कर्तव्य था 
दुत्कार खाना जैसे उसका फर्ज था 
फर्ज और कर्तव्य के बीच में आजादी का सपना व्यर्थ था 
वो कल भी देहरी के भीतर रहने वाली औरत थी 
आज भी वो सिर्फ घर का ही पर्याय है आज भी वो सपनों की खरीददार नहीं 
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़"

#सपना बनाम औरत #
दिल में उम्मीदों को दबाये
घूँघट का एक छोर मुँह में दबाये ।
चली जा रही थी एक कठपुतली की तरह ,
जैसे वो औरत नहीं बेजान लाश थी ।

उड़ सकती थी वो भी खुले आसमान में ,
लगा सकती थी अपनी उड़ान में चार चाँद
लेकिन वो बेबस थी घूँघट और फेरों में कैद थी
उसके कोई सपने क्यों हो सकते थे क्योंकि वो 

सिर्फ एक औरत थी ।

जी सकती थी घर के बाहर बैठकर
बाकी औरतों की तरह खुद को बेहूदे चुटकुलों के साथ ।
न जाने क्या गुरूर था फितरत में उसकी
खोकर रह गयी वो गुमनाम चिन्दियों की तरह
क्योंकि वो कल्पना में जीती कोई नार थी ।

मायके और ससुराल के बीच में फंसी हुई 

एक बेबस लड़की
उसकी पहचान सिर्फ मायके और ससुराल के

अलावा कैसे हो सकती थी
बोझ की तरह डाल दिया एक खाई में
ससुराल के लिए वो मात्र एक गुलाम थी ।

बुलंदियों पर पहुँचना जैसे एक मीठा ख्वाब था ,
सपनों को उड़ान देना जैसे महापाप था ।
अपनी खुशियों के लिए जीना सिर्फ सपना था
हाँ आसमान को सिर्फ निहार सकती थी ।
क्योंकि औरत होना उसका सबसे बड़ा गुनाह था

21 वीं सदी की तुलना मत करना
उस 19वी सदी की नारि से
इज्जत देना ही उसका कर्तव्य था
दुत्कार खाना जैसे उसका फर्ज था
फर्ज और कर्तव्य के बीच में आजादी का 

सपना व्यर्थ था
वो कल भी देहरी के भीतर रहने वाली औरत थी
आज भी वो सिर्फ घर का ही पर्याय है आज भी 

वो सपनों की खरीददार नहीं
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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