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Thursday 26 December 2019

50 .औरत 

अमर उजाला काव्य में प्रकाशित मेरी रचना #औरत#

थक गई हूँ खुद से ,
जाने क्यों टूटने लगी हूँ।
लगता है जैसे
खुद को ही छलने लगी हूँ ।
जंजीरों को कब मैंने
बाँध लिया पैरों में
स्वतंत्रता की चाह में
जाने क्यों झुलसने लगी हूँ
क्या एक औरत का कोई
वजूद नहीं होता?
क्या शादी के बाद
एक औरत किसी की जागीर
बन जाती है ।
सच्चाई से जिंदगी की
घबराने लगी हूँ ।
आसमान छूने की ताक़त
बेबसी में ढलने लगी है ।
सपना एक ख्वाब का सजाने
में अनगिनत झिड़कियां
खाने लगी हूँ ।
हसरतों को दबाकर
खुश रहने का सलीका
औरों से छिपाने लगी हूँ
हाँ क्या कहा तुमने
मैं आजाद हूँ ?
क्यों सुनाते हो मनगढंत
कहानियां प्रेम भरी ।
एक औरत न कभी
आजाद थी ,न हो सकती
वो तो बस कठपुतली है
पुरुष के इशारों की ।
ये क्या हुआ है मुझे
क्यों फिर से तुम्हें
मनाने लगी हूँ ।
चलो जी लेती हूँ
फिर से तुम्हारे सजाए हुए
सुंदर सपनों में ।
मर चुकी है अब
जीने की सारी तृष्णाएं ।
झूठी कहानियों में
खुद को आजाद
पाने लगी हूँ ।
मर गयी न जाने कितनी
जीने की चाहतें सजाए हुए ।
मैं सिर्फ एक खिलौना हूँ ।
हर गली में तोड़ी
जाने लगी हूँ ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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