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Monday 30 December 2019

97.मत घबराना तुम कभी

उदासियों का ये दौर भी चला जायेगा ,
जिसने दिया है दर्द गले भी वही लगाएगा ।

बिछौने बदलकर भी माँ कभी थकती नहीं ,
थक जाता है बेटा पर माँ फिर भी बदलती नहीं ।


"#घुटन #
मैंने अपना सब कुछ खो दिया ,कुछ भी तो नहीं बचा न मैं न मेरा आत्मसम्मान, बचा है तो सिर्फ आँसू घुटन और नाटक ,न जाने कब यही सोचते सोचते आशा की आँख भर आयी ।शायद यही जिंदगी है ? 
सबकी खातिर अपना अस्तित्व मिटाकर भी आज वो बिल्कुल अकेली है ।दो मीठे शब्द सुनने के लिए बेकरार है । किसी की चापलूसी करना उसे कभी पसंद नहीं था ।बचपन से ही एक अनाथ की जिंदगी जीने वाले के अस्तित्व पर सैकड़ों प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे हैं ,वही उसके साथ भी हुआ ।पढ़ने की उम्मीद लिए कब बचपन बीत गया और एक घर से दूसरे घर मे विदा कर दी गयी । ससुराल को भी मायका समझने की बहुत बड़ी भूल कर बैठी ।सबको उसका प्यार और अपनत्व सिर्फ एक नाटक ही लगता रहा । ताउम्र सिर्फ प्यार के लिए भटकती रही । जिंदगी और संसार के दोगलेपन से शायद वो अनजान थी ,इसीलिए आज भी वो सबकी नजरों में दोषी थी ।एक औरत के जन्म लेने से लेकर बोलने ,खाने, चलने ,पहनने ,लिखने और मरने तक पाबंदी लगाने वाले समाज को वो सिर्फ घर की दहलीज तक ही अच्छी लगती है । वो समाज कभी एक औरत को अपना जैसा जीता जागता इंसान क्यों नहीं समझता ? इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक उसका साथ निभाने वाली स्त्री हर रूप में सदैव उसकी मददगार साबित होती है फिर उसी औरत पर इतनी पाबंदी क्यों ?
क्रमशः 
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़"
#घुटन #
मैंने अपना सब कुछ खो दिया ,कुछ भी तो नहीं बचा न मैं न मेरा आत्मसम्मान, बचा है तो सिर्फ आँसू घुटन और नाटक ,न जाने कब यही सोचते सोचते आशा की आँख भर आयी ।शायद यही जिंदगी है ?
सबकी खातिर अपना अस्तित्व मिटाकर भी आज वो बिल्कुल अकेली है ।दो मीठे शब्द सुनने के लिए बेकरार है । किसी की चापलूसी करना उसे कभी पसंद नहीं था ।बचपन से ही एक अनाथ की जिंदगी जीने वाले के अस्तित्व पर सैकड़ों प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे हैं ,वही उसके साथ भी हुआ ।पढ़ने की उम्मीद लिए कब बचपन बीत गया और एक घर से दूसरे घर मे विदा कर दी गयी । ससुराल को भी मायका समझने की बहुत बड़ी भूल कर बैठी ।सबको उसका प्यार और अपनत्व सिर्फ एक नाटक ही लगता रहा । ताउम्र सिर्फ प्यार के लिए भटकती रही । जिंदगी और संसार के दोगलेपन से शायद वो अनजान थी ,इसीलिए आज भी वो सबकी नजरों में दोषी थी ।एक औरत के जन्म लेने से लेकर बोलने ,खाने, चलने ,पहनने ,लिखने और मरने तक पाबंदी लगाने वाले समाज को वो सिर्फ घर की दहलीज तक ही अच्छी लगती है । वो समाज कभी एक औरत को अपना जैसा जीता जागता इंसान क्यों नहीं समझता ? इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक उसका साथ निभाने वाली स्त्री हर रूप में सदैव उसकी मददगार साबित होती है फिर उसी औरत पर इतनी पाबंदी क्यों ?
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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