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Thursday, 26 December 2019

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  • सुप्रभात मित्रो ,जय श्री कृष्ण आप का दिन शुभ हो ।कनाडा से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'प्रयास' में मेरी कविता एक औरत के सम्पूर्ण व्यक्तिव को इंगित करते हुए 'नारी तुम सचमुच श्रद्धा हो '।

    नारी तुम सचमुच में श्रद्धा हो ।

    सपनों को आंखों में बसाए ,
    ख़्वाबों को दिल में छिपाए
    कब बड़ी हो जाती है लड़की
    उम्र का पता ही नहीं लगता।

    बांध दी जाती है एक खूंटे से ,
    बिना उसकी मर्जी जाने
    विदा हो जाती है उम्र से पहले
    अपनी खुशियों का गला घोंटे ।

    उम्मीदें होती हैं हजारों सबको
    चाहे बड़े हों या छोटे ,
    ओढ़कर शर्म का गहना
    रहती है सपनों से आंख मींचे

    आ जाते हैं गोद में जब फूल
    भूल जाती है ख़्वाबों की abcd
    बन जाता है मकसद सींचना ,
    दुनिया को अपनी ख़्वाबों में समेटे ।

    कहने को तो बेगार हो ,
    सिर्फ आराम की तलबगार हो ।
    उठता है दर्द पोर पोर में,
    सहने है फिर भी तानों के कशीदे ।

    चर्चे हैं आजकल बहुत तेरे ,
    क्या गली घर और बगीचे ।
    आराम ही आराम है जिंदगी में
    देखो वो हैं अब जिम्मेदारियों से छूटे ।

    काश सीखा होता दुनिया से ,
    गप्प मारकर जिंदगी जीना ।
    न होते अरमान फना तुम्हारे,
    तुम भी जी पाती झूठा मुखौटा लपेटे ।
    वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

    नारी तुम सचमुच श्रद्धा हो ।

    बचपन में हो कन्या का रूप ,
    चरणों मे तुम्हारे अमृत है ।
    लगती हो साक्षात दुर्गे ,
    माँ का रूप दिखाती हो ।

    खुद से तुम अनजान हो ,
    घर घर की पहचान हो ।
    बिन नारी घर लगता सुनसान ,
    हर महफ़िल की जान हो ।

    अपनी बात छिपा लेना ,
    सीखा बचपन से ये तुमने ।
    मिटाकर खुद को भी ,
    करती जगत का उद्धार हो

    माँ बनना आसान नहीं ,
    सारे फर्ज निभाती हो ।
    दुख सारे सहकर भी ,
    सुख के फूल लुटाती हो ।

    पति धर्म कैसे निभाएं
    ये सबको बताती हो ।
    ताने बाने जीवन के अंग ,
    पति को महान बताती हो ।

    विदाई में मिले उपदेश ,
    जीवन भर निभाती हो ।
    प्राण जाए पर वचन न जाये ,
    खुद को ये समझाती हो ।

    सीखा है बस प्यार करना ,
    चाहे मिले कितनी भी उपेक्षा ।
    वो मुझे बहुत प्यार करते हैं ,
    कहकर पति धर्म निभाती हो ।
    वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ
6 MARCH

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